गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला सब मनाज़िर हैं फज़ा के यूं निखर आए यहाँ चाँद आ कर सिर्फ अपनी ज़ुल्फ़ बिखराए यहाँ हर हवा का रुख बताया है यहाँ किस फर्द ने और रफ्तारे-हवा भी कौन
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला अब कहाँ से आएँगे वो लोग जो नायाब थे रात की तारीकियों में टिमटिमाते ख्वाब थे गरचे मौजें आसमां को छू रही थी एक साथ पर समुन्दर में सभी नदियों के
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला ज़िन्दगी में कभी ऐसा भी सफर आता है अब्र इक दिल में उदासी का उतर आता है शहृ में खुद को तलाशें तो तलाशें कैसे हर तरफ भीड़ का सैलाब नज़र
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला जब कभी मौजें समुन्दर की करेंगी इन्किलाब मांग लेंगी सब तेरे आमाल का तुझ से हिसाब खेलने वाले हुए हैं आज दुनिया के नवाब पढ़ने-लिखने वाले दिखते हैं ज़माने को खराब
गज़ल प्रेमचंद सहजवाला हो गए हैं आप की बातों के सब मुफलिस शिकार है खिजां गुलशन में फिर भी लग रहा आई बहार रौशनी दे कर मसीहा ने चुनी हंस कर सलीब रौशनी फिर रौंदने
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला रिश्तों की राह चल के मिले अश्क बार बार तनहाइयों ने बांहों में ले कर लिया उबार चलती है दिल पे कैसी तो इक तेज़ सी कटार डोली उठा के जाते
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला इस बेबका जहान में है कौन मुस्तकिल जब वक्त आ गया तो चले जाएंगे कभी पूछेगा जब अवाम सवाल अपने, आप से क्या आप सच ज़बान से फरमाएंगे कभी Thursday, May