गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला सदा दी थी बहारों को मगर आई खिज़ां क्यों है दीवानों के लिये ये इश्क आखिर इम्तेहां क्यों है फ़रोज़ाँ रौशनी बेइन्तहा थी जश्न जब आया अंधेरों की तरफ ये काफिला
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला वो वादा कर के भी मिलने मुझे अक्सर नहीं आया यकीं मुझको भी जाने क्यों कभी उस पर नहीं आया कभी सैय्याद के जो खौफ से बाहर नहीं आया परिंदा कोई
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला कितनी करीबियों से गुज़र कर जुदा हुए तकदीर से हम ऐसे में कितने खफा हुए उन चीड़ के दरख्तों के साये में बैठ कर यादों से अश्कबार भी हम बारहा हुए
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला वो चाहते हैं तेरा हर गुमान छुप जाए जहाँ में दोस्त तेरी दास्तान छुप जाए यहाँ तो सच पे ही ऐलान कर दो बंदिश का कहीं पे जा के तो यह
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला हर इक शय किस कदर लगती नई थी हवाले जब तेरे यह ज़िंदगी थी ज़रा सी गुफ्तगू तुम से हुई जब मेरी राहों में मंज़िल आ बिछी थी अँधेरा पार कर
मेरी ‘सिस्टर’ संस्मरण – प्रेमचंद सहजवाला भारतीय समाज नारी पुरुष सन्दर्भ में कई पुराने धरातलों पर से चलता हुआ अब कम से कम शहरों में किसी आधुनिक व शिक्षित कही जा सकने वाली ज़मीन पर
सन् 70-80 के दशक में मैं सोनीपत में तैनात था व खूब कहानियां लिखता था. तभी एक दिन एक मित्र ने आ कर बताया कि दिल्ली में मन्नू भंडारी की कहानी ‘यही सच है’ पर