तीन मूर्ति पुस्तकालय तक पहुंचना यह मात्र तीसरी बार हो रहा था पर इस बार अच्छा फंसा. लोहिया हस्पताल के बाद उधर जाने वाली बस नहीं दिखी तो एक ऑटो में ज़बरदस्ती बैठ गया. पर
ग़ज़ल – प्रेमचंद सहजवाला इक न इक दिन हमें जीने का हुनर आएगा कामयाबी का कहीं पर तो शिखर आएगा इस समुन्दर में कभी दिल का नगर आएगा मेरी मुट्ठी में भी उल्फत का गुहर
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला ज़रा सी बात पे हो जाते हैं खफा कुछ लोग कभी जो होते थे अपने भी हमनवा कुछ लोग शजर की छांव में बैठे तो गुफ्तगू कर ली अगरचे धूप में
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला ज़िन्दगी में कभी ऐसा भी सफर आता है अब्र इक दिल में उदासी का उतर आता है शहृ में खुद को तलाशें तो तलाशें कैसे हर तरफ भीड़ का सैलाब नज़र
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला मगरूर ये चराग दीवाने हुए हैं सब गरचे ये आँधियों के निशाने हुए हैं सब इक कारवां है बच्चों का पीछे पतंग के उड़ती हुई खुशी के दीवाने हुए हैं सब
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला शहृ में चलते हुए सब को यही लगता है क्या कू ब कू दुश्मन कोई फिर घात में बैठा है क्या हाथ फैला कर यहाँ पर हर कोई करता सवाल देखना
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला किसानों को ज़मींदारों के जब ऐलां बता देंगे, वो अपनी जान दे कर आप के कर्ज़े चुका देंगे. परिंदे सब तुम्हारे क़ैदखाने के कफ़स में हैं, मगर इक दिन ये तूफाँ
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला जगमगाते शहृ का हर इक मकाँ ऐवाँ लगा गरचे दिल से हर बशर बे-इन्तहा वीराँ लगा झूठ के रस्ते रवाँ था आज सारा काफिला सच के रस्ते जा रहा इक आदमी