गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
शहृ में चलते हुए सब को यही लगता है क्या
कू ब कू दुश्मन कोई फिर घात में बैठा है क्या
हाथ फैला कर यहाँ पर हर कोई करता सवाल
देखना मेरी लकीरों में लिखा पैसा है क्या
कह रहा था इक सियासतदान कल तक़रीर में
मुझ से भी ज़्यादा कहो चेहरा कोई उजला है क्या
रास्तों से कह रहा था कल समुन्दर कुछ उदास
मेरी नदियों को कहीं पर आप ने देखा है क्या
पूछते थे एक दूजे से ये कुछ ख़ास आदमी
यार बतलाओ कि यह आम आदमी होता है क्या
ईश्वर भी इक बशर को देख कर हैरान था
सोचता था यह बशर खाता है क्या पीता है क्या
रूह सी कोई भटकती आज भी इंजील में
फिर कोई तालीम देना चाहता ईसा है क्या
हो गया है यह वतन भी मिस्र के बाज़ार सा
आदमी से और ज़्यादा कुछ कहो सस्ता है क्या
इश्क में बह्रे-रमल क्या और क्या बह्रे हज़ज़ ,
दर्द में कोई कहे मक़तअ है क्या मतला है क्या.
(कू ब कू = आसपास, सियासतदान = राजनीतिज्ञ, तक़रीर = भाषण, इंजील = बाईबल, बहरे-रमल, बहरे-हज़ज़ = गज़ल की बह्रें, मक़तअ = गज़ल का अंतिम शेर, मतला = गज़ल का पहला शेर).