20
- June
2017
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सियासत
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
न हिन्दू की न मुस्लिम की किसी ग़लती से होता है
यहाँ दंगा सियासतदान की मर्ज़ी से होता है
ज़मीं सरमाएदारों की है या है हम किसानों की
हमारे मुल्क में ये फैसला गोली से होता है
नज़र मज़लूम ज़ालिम से मिला सकते नहीं अक्सर
शुरू ये सिलसिला शायद किसी बागी से होता है
तरक्की-याफ़्ता इस मुल्क में खुशियाँ मनाएं क्या
हमारा वास्ता तो आज भी रोज़ी से होता है
गुज़र जाते हैं जो लम्हे वो वापस तो नहीं आते
मगर अहसास अश्कों का किसी चिट्ठी से होता है
कहाँ तक रौशनी जाए फलक से चाँद तारों की
ये बटवारा जहाँ में आप की मर्ज़ी से होता है
न देखा कर तू हसरत से इन ऊंचे आस्तनों को
वहां तक पहुंचना पहचान की सीढ़ी से होता है
(सियासतदान = राजनीतिज्ञ, सरमाएदार = पूंजीपति, मज़लूम = अत्याचार पीड़ित).