गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
सदा दी थी बहारों को मगर आई खिज़ां क्यों है
दीवानों के लिये ये इश्क आखिर इम्तेहां क्यों है
फ़रोज़ाँ रौशनी बेइन्तहा थी जश्न जब आया
अंधेरों की तरफ ये काफिला फिर से रवां क्यों है
हमारे नाम आकाओं ने इक परवाज़ लिखी थी
मगर इस अहद में ताइर हुआ बे-आसमां क्यों है
मैं सहरा में मुसलसल चल के भी मसरूर कैसे हूँ
सराबों से मुहब्बत दोस्ती में आसमां क्यों है
कसम खा कर के सच की मैं गवाही देने आया था
मेरे माथे पे लेकिन झूठ कहने का निशाँ क्यों है
तुझे तो भूख सहने में महारत कब से हासिल है
मेरी तक़रीर सुन कर इस कदर तू बदगुमाँ क्यों है
तुम्हारी बरखिलाफी के बहुत आसार जागे हैं
मगर ला-गर्ज़ चेहरे पर तबस्सुम हुक्मरां क्यों है
उठा कर संग हाथों में निकल आए घरों से सब
हुआ कश्मीर फौजों के मुक़ाबिल नातवां क्यों है
(सदा = पुकार, खिज़ां = पतझड़, फ़ारोज़ां = जगमगाती, बेकरां = असीम, परवाज़ = उड़ान, सहरा = रेगिस्तान, मुसलसल = लगातार, मसरूर = खुश, तक़रीर = भाषण, महारत = विशेषज्ञता, बर्खिलाफी = विरोध, लगार्ज़ = बेपरवाह, तबस्सुम = मुस्कराहट, संग = पत्थर, नातवां = कमज़ोर)