मेरी ‘सिस्टर’
संस्मरण – प्रेमचंद सहजवाला
भारतीय समाज नारी पुरुष सन्दर्भ में कई पुराने धरातलों पर से चलता हुआ अब कम से कम शहरों में किसी आधुनिक व शिक्षित कही जा सकने वाली ज़मीन पर आ खड़ा हुआ है. कोई समय था जब देश के ही समाज सुधारकों को लगा था कि हमारे देश में नारी क्योंकि अशिक्षित ही रह जाती है, इसीलिए ब्रिटिश जैसी फिरंगी कौम हम पर फब्तियां भी कसती है और हमें पिछड़ा हुआ भी मानती है. यह देश तो ऐसी ऐसी महिलाओं पर गर्व करता रहा जो पतियों द्वारा पीड़ित रही जैसे द्रौपदी हो या सीता, या अहिल्या हो, ये सब पूज्य मानी जाती हैं पर जिस नारकीय जीवन में ये सब एक पुरुष प्रधान समाज द्वारा धकेली गई, वह भी कम शर्मनाक नहीं…
पर दूर क्यों जाएँ, मैं तो सन् 59-60 की बात कर रहा हूँ. तब मैं नौवीं कक्षा में ही पढ़ता था और मेरी बड़ी ‘सिस्टर’ किसी स्कूल में मात्र चालीस रुपए वेतन पर अध्यापिका भी थी तथा शाम को निजी कॉलेज में एफ.ए. भी पढ़ रही थी. मुझे एक दिन समझिये बुखार हो जाता है पर मैं ज़िद्दी लड़का हूँ. पढ़ने का ज़रा भी हर्जा हो, मुझे गवारा नहीं. सो सुबह मैं मां में मना करने के बावजूद नाश्ता कर के तैयार हो कर स्कूल चला जाता हूँ जो नज़दीक ही है. मां ने एक डोज़ दवाई का सुबह ही खिला दिया था और मैं स्कूल चल पड़ता हूँ.
मेरी बड़ी दीदी तो थी एक अंग्रेज़ी माध्यम के पब्लिक स्कूल में जो अभी हाल ही में केवल सोलह बच्चों को ले कर खुला था पर मैं जिस स्कूल में पढ़ता था वह बना था तंबुओं में! सब कक्षाएं तंबुओं में और पुस्तकालय तथा भौतिक व रासायनिक प्रयोगशालाएं भी तंबुओं में!
अब देखिये, ‘रिसेस’ होती है तो हल्की हल्की बूंदाबांदी होती है और हम सब लड़के उस बूंदाबांदी में भी थोड़ा थोड़ा खेल रहे हैं. सामने ही कैंटीन है जिस के अंदर कुछ मास्टर लोग भी बैठे चाय पी रहे हैं. स्कूल में केवल लड़के ही लड़के हैं और ऐसे में स्कूल में प्रवेश करती है एक लड़की. लड़की हल्की हल्की बूंदाबांदी में छाता हाथ में थामे, एक थर्मस में थोड़ा सा दूध और लंच बॉक्स में थोड़ी सी रोटी सब्ज़ी व पर्स में कुछ गोलियाँ बुखार की लिये स्कूल की कैंटीन के बाहर ही बने मुख्य द्वार से अंदर प्रवेश करती है. किसी अध्यापक से जाने क्या पूछती है. उसी समय क्या होता है कि घंटी बज जाती है और रिसेस खत्म! हम सब भाग जाते हैं क्यों कि मास्टर लोग बड़े ज़ालिम थे. अपनी अपनी सीटों पर मुस्तैदी से जा कर बैठ जाते हैं. शायद सब से पहले पहुँचने वालों में मैं था पर उस के बाद जो लड़के एक एक कर के क्लास (तंबू) में प्रविष्ट हुए तो मेरी जैसे शामत आ गई. पहले एक लड़का हांफता सा बोला – ‘प्रेमचंद, बाहर तेरी ‘सिस्टर’ आई है.’ फिर यह जैसे मास्टर द्वारा पढाया हुआ कोई पाठ हो गया – ‘प्रेम, तेरी सिस्टर आई है.’ लगा जैसे लड़कों के घर में ना तो कोई बहन है ना कोई लड़की इन्होने कभी देखी है. छाता हाथ में पकड़े एक अपेक्षाकृत आधुनिक सी दिखती लड़की को देख सब पर जैसे एक विचित्र सी प्रतिक्रिया होती है, हर कोई क्लास में घुसते ही कहता है – ‘प्रेम तेरी ‘सिस्टर’ आई है.’ मैं उस समय और अधिक चकित हुआ जब जो अध्यापक क्लास लेने आया उसने कुर्सी पर बैठते हुए ही मुझे यह इत्तिला दी कि बाहर तुम्हारी ‘सिस्टर’ आई है, दवाई ववाई लाई है शायद. इतना तो ठीक, पर कुछ देर बाद एक के बाद एक दो अध्यापक आए और तंबू में एक खिड़कीनुमा जाली में से अंदर झाँक कर सीधे लड़कों से ही कहने लगे – ‘प्रेम की ‘सिस्टर’ आई है, बाहर भेज दो.’ सचमुच, मेरे लिये यह एक बेहद नायाब सा अनुभव था. पर उस स्कूल के लड़कों की आक्रामक जिज्ञासा से मैं कई दिन तक भयभीत भी था. ये तो वो लड़के थे जो कभी सामने ही एक पहाड़ी पर बने घने से जंगल में किसी प्रेमी युगल को देख लेते तो रिसेस में इकट्ठा हो कर इतनी ज़ोर से दहाड़ते दहाड़ते युगल को दूर से ही डरा देते, जैसे इस जोड़े को ये सब मिल कर कच्चा खा जाएंगे. जैसे यह जोड़ा ही उनके लिये जलेबी जैसी कोई स्वादिष्ट सी चीज़ हो. इसलिए हुआ यह भी कि मैं जब ग्यारहवीं परीक्षा में आया तो बोर्ड की परीक्षाओं में मेरा परीक्षा केन्द्र बना देव नगर का ‘खालसा हाइ स्कूल’. मेरी ‘सिस्टर’ एक दिन पहले ही वह केन्द्र देख आई और परीक्षा के पहले दिन स्कूल से आधे दिन की छुट्टी ले आई. परीक्षा केंद्र में पहुँचने वाले सब से पहले दो व्यक्ति हम ही थे. हॉल बहुत बड़ा था. मेरी ‘सिस्टर’ दूर दूर तक तेज़ी से चलती हुई मेरा रोल नंबर देख आई और मुझ तक पहुँच कर मुझे वहीं ले गई. उसने मुझे कई अच्छी बातें बताई कि पेपर को ध्यान से पढ़ना और घबराना बिलकुल मत. हमेशा की तरह इस बार भी फर्स्ट आना है तुझे. पर मैंने क्या किया कि सीट पर अपना सब कुछ रख कर ही अपनी ‘सिस्टर’ की जान खाने लगा – ‘अब तुम घर चली जाओ, फिर स्कूल में ड्यूटी पर जाना. थोड़ी ही देर में यहाँ बहुत लड़के आ जाएंगे.’ ‘सिस्टर’ गुस्से में बोली – ‘लड़के आ जाएंगे तो मुझे खा जाएंगे क्या?’
– ‘नहीं तुम चली जाओ ना.’
पर ‘सिस्टर’ खड़ी ही रही और लड़कों ने एक एक कर के आना शुरू कर दिया. मेरी हालत यह देख कर और अधिक आश्चर्य से भरने लगी कि मेरी क्लास के लड़के आ कर अपना रोल नंबर ढूंढ कर मेरी ‘सिस्टर’ के पास ही आते और नमस्ते कर के ठिठक कर एक तरफ खड़े हो जाते. ‘सिस्टर’ उनको भी अच्छी सलाह देने लगी और बताने लगी कि जल्दबाजी में कई बार जो आता है वह भी विद्यार्थी गलत लिख कर आता है. सब लड़के खुश थे. जैसे पल भर में ही वे सहसा सुधर कर सभ्य लड़कों में तब्दील हो गए होँ. और जब अंत में ‘सिस्टर’ सचमुच जाने लगी तब उन लड़कों के चेहरों पर टपकी शर्मिंदगी और अधिक ज़ाहिर होने लगी जब ‘सिस्टर’ एक एक लड़के से हाथ मिला कर उसे ‘गुड विशिज़’ दे कर जाने लगी. मैं परीक्षा में उत्तर लिखते लिखते भी सोच रहा था कि एक दिन भी अगर मेरी ‘सिस्टर’ इस स्कूल में टीचर बन कर आ गई तो ये सब लड़के पहले दिन ही सुधर कर सभ्य हो जाएंगे.
20
- June
2017
Comments Off on मेरी ‘सिस्टर’
मेरी ‘सिस्टर’