20
- June
2017
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छाए हैं आसमान में अब अब्र बेहिसाब…
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
छाए हैं आसमान में अब अब्र बेहिसाब
मौसम चला है करने को क्या शाम लाजवाब
दिन भर में कितनी रोशनी धरती पे खर्च की
अब दे रहा उफक को है सूरज वही हिसाब
सब का ही रौशनी से मरासिम है दोस्तो
जलता चराग हो कि हो रातों का माहताब
ख़्वाबों में जीत जाने के मंज़र कभी न देख
पढ़ पाया क्या कभी न कोई इश्क की किताब
जितना भी दर्द हो तेरे दिल में वो बाँट दे
मिल जाएगा तुझे तेरे आमाल का सवाब
वादा सुगंध बांटने का कर गयी बहार
गुलशन को क्या पता कि हैं आने को इन्तेखाब
दम भर को सुब्ह ठहरी ओ फिर हो गई फना
ताबीर पूछ पाए न आँखों के मेरी ख्वाब
(अब्र = बादल, उफक = क्षितिज, माहताब = चाँद, मंज़र = दृश्य, आमाल = कर्म, सवाब = पुण्यफल, इन्तेखाब = चुनाव, ताबीर = स्वप्न-फल).