गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
वो वादा कर के भी मिलने मुझे अक्सर नहीं आया
यकीं मुझको भी जाने क्यों कभी उस पर नहीं आया
कभी सैय्याद के जो खौफ से बाहर नहीं आया
परिंदा कोई भी ऐसा फलक छू कर नहीं आया
अदालत में गए थे ईश्वर पर फैसला सुनने
मगर अफ़सोस सब आए फकत ईश्वर नहीं आया
बहुत आई सदाएं शहृ की मेरे दरीचे से
मगर मैं हादसों के खौफ से बाहर नहीं आया
मेरी मजबूर बस्ती में सुबह सूरज उगा तो था
वो अपनी मुट्ठियों में रौशनी ले कर नहीं आया
बहुत आए हमारे गांव में सपनों के ताजिर पर
गरीबी दूर करने वाला बाज़ीगर नहीं आया
करोड़ों देवताओं के करोड़ों रूप हैं लोगो
बदल दे ज़िंदगानीजो वो मुरलीधार नहीं आया
मकानों की कतारों में गए हम दूर तक साथी
चले भी थे मुसलसल पर तुम्हारा घर नहीं आया
बहुत आवाज़ दी तुझको तेरे ही घर के बाहर से
मगर अफ़सोस तू इतनी सदाओं पर नहीं आया
गए शागिर्द सब पढ़ने मदरसा बंद था लेकिन
पढ़ाने कम पगारों पर कोई टीचर नहीं आया