फिरोज़ाबाद में अपनी स्नाकताकोत्तर पढ़ाई के दौरान ज़िन्दगी दिलचस्प सी भी बन गई थी. प्रोफ़ेसर लोग कहते थे – ‘कभी भी नक़ल के मत करो. नक़ल कर के पास होने से तो कहीं जा कर चपरासी की नौकरी ढूँढना अच्छा.’ और मैं मेहनत करते करते कभी कभी शहर का माहौल देखने निकल पड़ता. कई बार यह भी हुआ कि रात एक एक बजे तक पढ़ कर कमरे से नीचे आ जाता और ठंडी हवा में गली में ही खड़े रिक्शे वाले से कहता – ‘चलो स्टेशन की तरफ, ठंडी हवा खा के आते हैं.’ रिक्शे वाला दोस्त सा बन गया था और मेरे मूडी स्वाभाव को जानता था. कहता – ‘बैठ जाओ बाऊजी, कहाँ से चलूँ?’
– ‘इसी, सदर बाज़ार वाले रास्ते से,’ मैं आर्यनगर रहता था और नज़दीक ही
जलेसर रोड होता और उसकी लम्बाई पूरी नापते ही सदर बाज़ार.
जलेसर रोड पर मैंने एक बार रिक्शा अनायास ही रोक दिया था. सामने ही पान की दुकान थी और दुकान तो बंद थी पर दुकान के नीचे बेसमेंट जैसे एक हिस्से में विद्यार्थियों का एक जमघट सा नज़र आ रहा था. मुझे यह देख कर थोड़ी थोड़ी ईर्ष्या भी हुई कि लड़कों का यह ग्रुप पढ़ रहा है और मैं बाज़ार में मटरगश्ती करने इस समय भी निकल पड़ा हूँ!
रिक्शे से उतर कर मैं उस दुकान तक जाता हूँ तो कई चेहरे जाने पहचाने से हैं. वे सब मुझे जानते हैं, कि मैं तो एम.एस.सी पढ़ रहा हूँ. इसलिए लगभग सब मुझे देख मुस्करा दिए. मैंने कहा – ‘क्या चल रहा है भाई? कल ही तो शुरू है ना इंटर की परीक्षाएं?’ ये सब लड़के इंटर की परीक्षा की तैयारी कर रहे थे.
एक ने ‘हाँ सर’ कहने के बाद कहा – ‘चाय बनाएँ सर?’
मुझे वे ‘सर’ इसलिए भी कहते कि एक बार प्रोफ़ेसर लोग किसी कारण हड़ताल पर चले गए थे और कुछ प्रिंसीपलों ने फैसला किया था कि फिलहाल एम.एस.सी के अच्छे अच्छे विद्यार्थियों को ही लेक्चरर बना कर इंटर कॉलेजों में भेज दो, इस से उन को पढ़ाने का भी थोड़ा अनुभव हो जाएगा और लड़के भी समय बर्बाद होने से कुछ बच जाएंगे. कोर्स का अधिक नुक्सान नहीं होगा. मैं भी इन्हीं में से एक दो के कॉलेज में गणित के कई पीरियड ले आया था.
मेरी नज़र एक पर्ची पर पड़ती है जो एक लड़के ने बनाई थी और दूसरे को दे रहा था कि ऐसी ही एक पर्ची तू भी बना ले. वे दरअसल क्या कर रहे थे कि किताब में से महत्वपूर्ण प्रश्नों के हल बहुत छोटी छोटी पर्चियों पर बहुत सूक्ष्म से अक्षरों में लिख रहे थे. मैंने पूछा – ‘ये क्या कर रहे हो भाई?’
इस पर लड़के अकारण मुस्करा से दिए. एक ने कहा – ‘कुछ नहीं, पहला परचा ही गणित का है सर…’
– ‘और तुम लोग पर्चियां बना रहे हो, ताकि कल परीक्षा भवन में नक़ल कर
सको?’
लड़के फिलहाल तो हक्के बक्के रह गए. पर फिर उनको जैसे एक रास्ता सूझा. सब ने मिल कर एक कहकहा सा मार दिया. एक बोला – ‘सर, आप तो मेहनती हो. पोज़ीशन भी ले लोगे. हमें तो इन पर्चियों को बनाने में आप से भी ज़्यादा मेहनत पड़ती है सर. पकड़े गए तो हॉल में ही दो टके की इज्ज़त .’
दूसरा लड़का बोला – ‘साल गया सो अलग.’
मैं सचमुच, मन को यहाँ अधिक समय तक न लगा सका और वहाँ से चल पड़ा. रिक्शे में बैठ सदर बाज़ार चला गया. स्टेशन नहीं गए हम. सदर बाजार में ही एक चाय की दुकान उस समय भी खुली थी, सो वहीं एक एक प्याली चाय पी कर चले आए.
* *
हमारे पड़ोस में ही एक इंटर कॉलेज का लेक्चरर रहता था. वह सुबह सात से साढ़े दस तक केमिस्ट्री पढ़ाता था और फिर हमारे ही कॉलेज में साढ़े ग्यारह बजे से शुरू होने वाली कक्षाओं में एम.एस.सी केमिस्ट्री पढ़ता था. ऐसा कई विद्यार्थी करते थे. स्नातकोत्तर पढ़ाई के साथ वे इंटर कॉलेज में पढ़ाते भी थे. मैं तो अच्छे भले घर का था, सो सोचता था कहीं नौकरी की क्या ज़रूरत. मेहनत कर के पोज़ीशन वोज़ीशन ले लो बस… मेरे लिए तो गणित की किताबें खगालना ही एक ऐय्याशी सी थी.
वे लेक्चरर साहब बहुत आदर्शवादी से थे. सब लड़कों को पाठ पढ़ाते थे – ‘मेहनत करो. कभी भी नक़ल मत करो…’ और अक्सर इस उस को डांट भी देते थे. मैं एक दिन अपना पहला पेपर दे कर कमरे में लौटा ही था कि वे लेक्चरर महोदय गली में ही एक लड़के को लगभग झपटे से खड़े थे. आसपास गली के दो चार लोग इकट्ठा हो गए थे. जब मैं पहुंचा तो उन की गिरफ्त में फंसा लड़का मुझे देख खूब शरमाया और नीचे ज़मीन की तरफ देखने लगा. उस लेक्चरर ने मुझे देखते ही कहा – ‘अब इन लड़कों का क्या किया जाए? आज ही ये नक़ल करते पकड़े गए हैं. मैं परसों तक इनका ‘इन्विजीलेटर’ था और आज वहीं के किसी ‘इन्विजीलेटर’ ने मुझे खबर दी.’
मैंने कहा – ‘आप के पेपर तो कल से ही शुरू हैं ना?’
– ‘ह्म्म्म.’ उन्होंने मेरी बात की तरफ ध्यान ही नहीं दिया. लड़का मेरी तरफ देख ही नहीं पा रहा था क्यों कि उस दिन उस पान की दुकान के बेसमेंट में नक़ल की पर्चियां बनाने वाले होनहार विद्यार्थियों में से एक वह भी था.
पर उन लेक्चरर महोदय का इस प्रकार लड़के को गली में ही झपटे रखना शायद लोगों को पसंद नहीं आ रहा था. एक ने कहा – ‘जाने दीजिए. ये लड़के अपनी मर्ज़ी के मालिक हैं. जो इनका होना होगा हो जाएगा…’
लेक्चरर साहब बोले – ‘फिर इस देश का क्या होगा? जिस देश का विद्यार्थी नक़ल मारते पकड़ा जाए, उस देश की दुनिया में तस्वीर क्या बनेगी?’
बहुत मुश्किल से उस दिन वह लड़का वहां से छूट पाया. दरअसल मैं उस लड़के को समझाऊँ, ऐसा मेरा मन ही नहीं कर रहा था. सो चला आया. पर इस से भी दिलचस्प बात ठीक तीसरे दिन होती है. अगले दिन मेरी छुट्टी थी और उस प्रोफ़ेसर का पहला पेपर था. तीसरे दिन हम दोनों का ही पेपर था और गली से एक ही रिक्शे में दोनों पहुँचते हैं परीक्षा भवन. जिस हॉल में मेरा रोल नंबर था उस के ही साथ वाले हॉल में उसका. हम एक दूसरे से हाथ मिला कर और शुभकामनाएं अदल बदल कर के विदा हुए. मैं परीक्षा भवन में प्रश्नपत्र मिलते ही गंभीरता से अपने सवाल करने लगा. काफी ‘टफ’ पेपर सेट हुआ है, ऐसा आसपास बैठे सहपाठियों की शक्लों से भी पता चल रहा था. पर गंभीरता से अपनी अपनी किस्मत आज़माने के अलावा हमारे पास कोई विकल्प था ही नहीं.
हमारे हॉल में एक महिला ‘इन्विजीलेटर’ थी और साथ के हॉल में भी एक. ना जाने क्या था, कि दोनों हॉल को बाकी पुरुष ‘इन्विजीलेटरों’ के हवाले कर के खुद दूसरी तरफ गपशप सी करने आती जाती. इस बार साथ के कमरे से चश्मे वाली ‘इन्विजीलेटर’ हमारे हॉल में आई तो हमारे वाली महिला एक दम मेरी सीट के सामने ही एक छोटी टेबल पर चढ़ कर बैठ गई. उस टेबल वाला परीक्षार्थी आया ही नहीं था. चश्मे वाली ‘इन्विजीलेटर’ इस ‘इन्विजीलेटर’ के पास आई और वहीं टेढ़ी सी खड़ी हो कर धीमी धीमी आवाज़ में गप लगाने लगी, बोली – ‘हाय, हमारे हॉल में ना एक लेक्चरर नक़ल करते पकड़ा गया है!’
– ‘हम्म्म्म???’ हमारे वाली की ‘हम्म्म्म’ की आवाज़ में ही चकित होने का बेहद गहरा सा भाव था. उधर वाली फुसफुसा कर बता गई. मैं तो सांस रोके यह सब सुनता रहा क्यों कि ना जाने क्यों, इस बात में मेरी जिज्ञासा बढ़ सी गई थी. अपने पेपर में मैंने पाया कि मेरी कलम फिलहाल मेरी अँगुलियों के बीच फंसी चकित सी एक जगह स्थिर सी हो गई थी. वह बता रही थी – ‘इंटर कॉलेज का है. दो तीन ‘इनलैंड’ लेटर लापरवाही से अपनी टेबल पर ऐसे रख दिए थे जैसे अभी अभी मिले होँ और उसने पढ़ कर गलती से वहीं पटक दिये होँ. पर हमने गौर से देखा कि वह उत्तर लिखते लिखते अचानक कोई ‘इनलैंड लेटर पढ़ने लगता. ‘इन्विजीलेटर’ जानते थे, वह लेक्चरर है, शायद इसी भरोसे कोई उससे अधिक कुछ कह ही नहीं रहा था, ना ही शायद उसे कोई डर ही लग रहा था. पर परीक्षा भवन में ही वे महाशय किसकी चिट्ठी पढ़ रहे हैं, इस जिज्ञासा से हमारे यहाँ जो रामसनेही साहेब हैं ना, सब से सीनियर, उन्होंने एकदम सामने पड़ कर उन से वह ‘इनलैंड’ लेटर हाथ में ले लिया. पता है क्या था? सब केमिस्ट्री के फॉर्मूले लिखे हुए थे. केमिस्ट्री की ‘ईक्वेशन्स’! कहते कहते चश्मे वाली का मुंह फट गया और उस से भी ज़्यादा उसकी बात सुनने वाली का फटा. मेरे पास मुंह फाड़ने का समय नहीं था, सो मैं पेपर में मन लगाने लगा, एक चुनौती भरा प्रश्न सहसा सामने था.
घर पहुंचा तो पड़ोस में खूब मखौल उड़ा हुआ था. सब कह रहे थे कि वो देखो, इंटर कॉलेज के वही विद्यार्थी अब यहाँ इकट्ठा हो गए हैं और उन लेक्चरर महोदय का इंतज़ार कर रहे हैं. कह रहे हैं खूब लेक्चर पिला रहा था, आज सब जगह खबर फैल गई है कि उन से पेपर वापस ले लिया गया और उन्हें रामसनेही साहब ने कम से कम आधा घंटा यूं ही बिठाए रखा. फिर पूछा कि कौन कौन से पृष्ठ पर नक़ल की है. सब कटवा कर फिर पेपर दिया कि आगे करो. ‘इनलैंड’ लेटर वहां हमारी टेबल के पास रख दो.
शहृ भर में सचमुच, यह खबर फैल गई थी कि इंटर कॉलेज का एक लेक्चरार एम.एस.सी केमिस्ट्री की परीक्षा में ‘इनलैंड’ लेटरों पर ही केमिस्ट्री की ‘फोर्मुले’ लिख लाया था!’
Thursday, January 27, 2011