गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
मगरूर ये चराग दीवाने हुए हैं सब
गरचे ये आँधियों के निशाने हुए हैं सब
इक कारवां है बच्चों का पीछे पतंग के
उड़ती हुई खुशी के दीवाने हुए हैं सब
पंछी घरों की सिम्त उड़े जा रहे हैं देख
कल फिर उड़ान भरने की ठाने हुए हैं सब
फुटपाथ हों या बाग-बगीचे हों शहृ के
लावारिसों के आज ठिकाने हुए हैं सब
मुझ को न कर हिरासाँ यूं ऐ कशमकश-ए-इश्क
मुश्किल किताबों के वो फ़साने हुए हैं सब
लुक छुप सी छत पे कर रहा है चाँद बार बार
बादल भी ढीठ कितने न जाने हुए हैं सब
(सिम्त = तरफ, हिरासाँ = भयभीत
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
रिश्तों का एक सहरा है चौतर्फ बेकराँ
ये शहृ है कि तिशनालबों का है कारवां
सैयाद के कफस में है मजबूर सिर्फ वो
परवाज़ तो परिंदे के पंखों में है निहां
धरती को कैसे बाँट दिया है जहान ने
खाता है खौफ कैसा तो यह देख आसमां
रस्ते पे चलने फिरने का उस्लूब और है
बेटी हुई है जब से मेरी दोस्तो जवां
बेटी को खुशनुमा सी हवाएं नसीब कर
पंखों से नाप डालेगी बेटी ये आसमां
कहती है जिंदगानी है इक इम्तिहान माँ
ससुराल का नहीं है पर आसान इम्तिहां
(बेकराँ = असीम, तिशना-लब = प्यासे, सैयाद = पंछी पकड़ने वाले, कफस = पिंजरा, निहां = छुपी हुई, उस्लूब = Style, शैली)