गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
चलो माज़ी के अंधियारों में थोड़ी रौशनी कर लें
वहां यादों के दीपों से फरोजां जिंदगी कर लें
मेरे महबूब तेरी दीद कब होगी ये क्या मालूम
तुम्हारी इंतज़ारी में ज़रा हम शायरी कर लें
तुम्हारे हुस्न को माबूद कर के बन गए काफिर
तुम्हारे आस्तां पर रख के सर अब बंदगी कर लें
समुन्दर अपनी जा पर करते रहियो देवताई बस
तेरे क़दमों को अर्पित शहर जब तक हर नदी कर लें
नदी पर जंग क्यों है किसलिए है आब पर फितना
मुहब्बत की नदी में मिल के आओ खुदकशी कर लें
(माज़ी = अतीत, फरोजाँ = प्रज्वलित, माबूद = पूज्य, आस्तां = चौखट, आब = पानी, फितना = झगड़ा).
Self Rating – Fair.
गज़ल – प्रेमचंद सहजवाला
मिलने की रस्म यूं तो हमेशा वही रही
तेरी नज़र न जाने मगर क्यों फिरी रही
नाराज़ रहते हैं मेरे अहबाब किसलिए
उन को सलाम करने में अक्सर कमी रही
जीते हैं लोग और भी अपनी तरह यहाँ
अपनी ही सिर्फ ऐसी नहीं जिंदगी रही
गम को तो कर चले थे निहां दिल में हर जगह
चेहरे पे सिर्फ थोड़ी अयाँ बेबसी रही
बस्ती से भीड़ अपने घरों को हुई रवां
फिर भी फज़ा गुबार से दिन भर अटी रही
मिलते हैं रोज उफक पे ज़मीं और आसमाँ
सहरा में ये नज़र भी वहीं पर टिकी रही
गर्दन भले ही भूल से कुछ उठ गई हो पर
दस्तार फिर भी अपनी ज़मीं पर गिरी रही
मकतल से लाश ले गए क़ानून-दाँ मगर
पूरे नगर में छाई हुई सनसनी रही
(अहबाब = दोस्त (plural), मुफलिस = गरीब, निहां = छुपी हुई, जा-ब-जा = जगह जगह, अयाँ = ज़ाहिर)